नारद संहिता, गरुड़ पुराण, शुक्रनीति सार में लिखा है कि रत्न, सुंदरता एवं वैभव के प्रतीक तो है ही, किन्तु ये ग्रह दोषों का भी हरण करते हैं। कौन-सा रत्न किस ग्रह को प्रसन्न कर उसका दोष दूर करता है इस संबंध में रत्नमाला नामक ग्रंथ में कहा गया है कि सूर्य का रत्न माणिक्य, चंद्रमा का मोती, मंगल का मूंगा, बुध का पन्ना, बृहस्पति का पुखराज, शुक्र का हीरा, शनि का निर्मल नीलम, राहु का गोमेद और केतु का रत्न लहसुनिया है।
सर्वसाधारण के लिए रत्नों को धारण करना सुलभ एवं सुगम नहीं है तब इनके उपरत्न या वनस्पति आदि को यथाशक्ति धारण कर कष्ट बाधा दूर की जा सकती है। सूर्यादि ग्रहों के लिए निम्नानुसार वनस्पति का प्रयोग करें। वनस्पति प्रयोग से धन दौलत चूमेगी आपके कदम और खुल जाएंगे किस्मत के दरवाजे
* सूर्य के लिए बेल की जड़ सूत के धागे में दाहिनी भुजा में धारण करें।
* चंद्रमा के लिए सोमवार के दिन खिरनी की जड़ सूती कपड़े में बांध कर गले में अथवा भुजा पर धारण करें।
* मंगल के लिए मंगलवार को सोने के ताबीज में अनंतमूल की जड़ रखकर लाल रंग के सूती धागे में बांधकर पहनें।
* बुध के लिए बुधवार को विधारा की जड़ हरे रंग के धागे में बांधकर धारण करें।
* बृहस्पति के लिए केले की जड़ का टुकड़ा सोने के यंत्र में रखकर पीले धागे से वीरवार को धारण करें।
* शुक्र के लिए सरपंका की जड़ चांदी के ताबीज में रखकर सफेद धागे से बांधकर शुक्रवार को धारण करें।
* शनि के लिए शनिवार को विदुआ की जड़ रांगे या लोहे के ताबीज में काले डोरे में बांध कर धारण करें।
* राहु के लिए बुधवार को चंदन की जड़ को रांगे के ताबीज में नीले रंग के धागे में बांधकर धारण करें।
* केतु के लिए चांदी के यंत्र में असगंध की जड़ वीरवार को नीले रंग के धागे में धारण करें।
28.9.15
वनस्पति प्रयोग से धन-दौलत चूमेगी आपके कदम और खुल जाएंगे किस्मत के दरवाजे
इस तरह हनुमान जी को अपने घर बुलाएं और होने लगेंगे अनोखे चमत्कार
इस तरह हनुमान जी को अपने घर बुलाएं और होने लगेंगे अनोखे चमत्कार
हनुमान जी के किसी भी चित्र में देखें तो पाएंगे की उनके हाथ में सदा गद्दा और झण्डा रहता है। झण्डे पर लिखा होता है श्रीराम। महाभारत युद्ध के समय हनुमान जी अर्जुन के रथ के झण्डे पर विराजित थे। उन्होंने अजुर्न की पग-पग पर रक्षा करी और उसे विजय दिलवाने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। आईए जानें कैसे।
शास्त्रनुसार कौरव-पांडव युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार अर्जुन के रथ पर स्वयं पवनपुत्र विराजित हुए। जैसे ही महाभारत युद्ध समाप्त हुआ तभी भीम और दुर्योधन के बीच गद्दा युद्ध प्रारंभ हुआ। गद्दा युद्ध में नियमों का उल्लंघन कर भीम ने दुर्योधन को हरा दिया। दुर्योधन को मृतवस्था में छोड़कर सभी पांडव के शिविर में लौट आए।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा। हे पार्थ! सर्वप्रथम तुम अपने गांडीव धनुष और अक्षय तरकस को लेकर रथ से उतर जाओ। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के निर्देश का पालन किया। इसके बाद भगवान कृष्ण भी रथ से उतर गए।
भगवान कृष्ण के रथ से उतरते ही अर्जुन के रथ पर धव्ज पर विराजे हनुमानजी भी रथ को छोड़कर उड़ गए। तभी अर्जुन का रथ जल कर भस्म हो गया। इस दृश्य को देख अर्जुन ने भगवान कृष्ण से रथ के जलने का कारण पूछा।
तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा। हे पार्थ। तुम्हारा रथ तो अनेक दिव्यास्त्रों के प्रहार से पहले ही जल चुका था, मात्र मेरे तथा पवनपुत्र हनुमानजी के तुम्हारे रथ पर विराजे रहने के कारण ही अब तक यह भस्म नहीं हुआ था। हे अर्जुन! जब तुम्हारा युद्ध का कर्तव्य पूरा हो गया, तभी मैंने व हनुमानजी से इस रथ को त्याग दिया। अतः तुम्हारा रथ अभी भस्म हुआ है।
आप भी लाल रंग के तिकोने झण्डे पर श्रीराम लिखकर घर की छत पर लगाएं। इस तरह हनुमान जी को अपने घर बुलाएं और फिर देखें होंगे कैसे अनोखे चमत्कार। जिस तरह हनुमान जी ने अर्जुन के रथ की रक्षा करी उसी तरह वह आपके भी घर की रक्षा करेंगे।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण से ध्वजा अर्थात पताका अर्थात त्रिकोण झण्डा केतू ग्रह को संबोधित करता है। शास्त्रों में केतू ग्रह को मोक्ष का ग्रह बताया गया है। काल पुरुष सिधान्त के अनुसार केतू का स्थान आकाश में हवा में लहरते हुए स्थित होता है। केतू का स्वरूप त्रिकोण है। लाल रंग की त्रिकोण पताका व्यक्ति की देह की रक्षा करता है। लाल रंग की त्रिकोण पताका के कुछ विशेष उपाय इस प्रकार हैं।
* कोर्ट-कचहरी के पचड़ों में फंसे हों तो घर की छत पर पश्चिम दिशा में लाल त्रिकोण पताका लगाएं।
* प्राणों पर किसी भी तरह का संकट मंडरा रहा हो तो हनुमान मंदिर के कलश पर लाल त्रिकोण पताका लगाएं।
* परिक्षा में अच्छे अंक पाने की कामना पूर्ण करना चाहते हो तो मंगलवार के दिन हनुमान जी को तिकोना झण्डा चढ़ाएं।
* अपना घर बनाने की इच्छा पूर्ण न हो पा रही हो या संपत्ति से संबंधित कोई भी कार्य हो तो मंगलवार को लाल रंग के तिकोने झण्डे पर श्रीराम लिखकर हनुमान मंदिर में चढ़ाएं।
14.9.15
शैतानी शक्तियों का नाशक - हीरा
शैतानी शक्तियों का नाशक - हीरा
प्राचीन समय से ही हीरा राजा-महाराजाओं की शान रहा है। आज के समय में हीरा हर घर, हर वर्ग को आकर्षित कर रहा है। महिलाओं के श्रंगार में हीरे जड़ित आभूषणों से तो उनका सौंदर्य और निखरता है। सभी रत्नों में हीरा सबसे कठोर एवं चमकीला है। यह एक स्वतंत्र खनिज है व घनाकार स्वरूप में हमें प्राप्त होता है। यह अच्छी पारदर्शिता के साथ सभी रंगों में आता है।
हीरे का मूल्य इसके भार, शुद्धता, रंग तथा पारदर्शिता को ध्यान में रखकर तय किया जाता है। इसकी आंतरिक शुद्धता एवं रंग की श्रेणी का एक पैमाना होता है। वैसे तो हीरे के बहुत से कट होते हैं, किंतु गोल डबल कट सबसे ज्यादा चलन में है। इस कट में ५७ फलक होते हैं। इस कारण इसकी दीप्ति आकर्षक एवं सम्मोहित करने वाली होती है। हीरा शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र सभी ग्रहों में सबसे चमकीला है।
मूलांक ६ वाले जातक भी इस रत्न को धारण कर सकते हैं। हीरा पहनने से शैतानी शक्तियां नष्ट होती हैं। यह जातक के विचारों में दृढ़ता लाता है और उसके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाता है। इससे दांपत्य जीवन में मधुरता आती है। हीरे का रासायनिक गठन कार्बन है। इसे इंग्लिश में डायमंड कहते हैं।
शनिदेव
शनिदेव
शनिदेव को मृत्युलोक का धर्मराज कहा जाता है। पृथ्वी पर होने वाले सत्कर्मो और दुष्कर्मो का लेखा-जोखा रखकर तत्काल दंडित करने के कारण लोग इनसे भयभीत रहते हैं। जन्मकुंडली में वृष और तुला लग्न वालों के लिए शनिदेव परम योगकारक होते हैं, जबकि मकर और कुंभ इनकी अपनी राशि है। तुला राशि पर उच्च और मेष राशि पर इन्हें नीच की संज्ञा प्राप्त है।
कर्क और सिंह वालों के लिए ये मारक होते हैं। मारक अथवा मारकेश का ज्योतिषीय अर्थ है - मरणतुल्य कष्ट देने वाला। अन्य ग्रह यदि मारकेश हैं तो वे अशुभ फल अवश्य देते हैं, किंतु शनि के साथ ऐसा नहीं है। पृथ्वीलोक के दंडाधिकारी होने के कारण शनिदेव अपने भाई यमदेव की ही तरह मर्यादा में बंधे हैं। इस कारण ये चाहे मारक हों या योगकारक, कर्मानुसार ही फल देते हैं। पुराणों में कहा गया है कि शनिदेव के कुप्रभावों से बचने के लिए असहाय लोगों की मदद करें, अभिवादनशील रहें और श्रद्धा-विश्वास के साथ दान-पुण्य करें।
शनि वायु तत्वप्रधान और पश्चिम दिशा के स्वामी हैं। ये आंधी-तूफान, महामारी, अग्निजनित दुर्घटनाओं तथा तमाम प्राकृतिक आपदाओं के स्वामी होते हैं। इनका पृथ्वी के नजदीक आना कुछ इसी तरह की आशंका पैदा करता है, किंतु ये वर्तमान में अग्नितत्व की राशि सिंह में चल रहे हैं, जो इनके पिता सूर्य की राशि है। इस कारण इनके प्रभाव में कोई क्रूरता या परिवर्तन नहीं आएगा। कतिपय ज्योतिषी अपने अध्ययन के आधार पर शनि का नाम लेकर लोगों को डरा रहे हैं। ये लोग विशेषत: सिंह राशि के लोगों को डरा रहे हैं, लेकिन यह सही नहीं है- स्थान हानिकरों जीवो स्थान वृद्धि करौ शनि।
इस सूत्र के अनुसार शनि जिस स्थान (सिंह) पर बैठते हैं, वहां की वृद्धि ही करते हैं। अत: सिंह राशि वालों को शनि से डरने की जरूरत नहीं है। अच्छे कर्म करते चलें। शनि देव के आशीर्वाद से कामयाबी आपके कदम चूमेगी। सिंह राशि ही नहीं, किसी भी राशि के जातक को शनिदेव का कोपभाजन नहीं बनना पड़ेगा।
5.9.15
शनिवार व्रत कथा
शनिवार व्रत कथा
अग्नि पुराण के अनुसार शनि ग्रह की से मुक्ति के लिए "मूल" नक्षत्र युक्त शनिवार से आरंभ करके सात शनिवार शनिदेव की पूजा करनी चाहिए और व्रत करना चाहिए। शनिदेव के बारें में जानने के लिए क्लिक करें: शनिदेव
व्रत कथा एक समय में स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए, फिर उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया।
सभी ग्रह भू-लोक राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे। जब ग्रहों ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाएं। सबसे आगे सोना और सबसे पीछे लोहे का आसन रखा गया। उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने आसन पर बैठने को कहा। उन्होंने कहा- जो जिसका आसन हो ग्रहण करें, जिसका आसन पहले होगा वह सबसे बड़ा तथा जिसका बाद में होगा वह सबसे छोटा होगा।
चूंकि लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है। इस निर्णय से शनि देव रुष्ट होकर बोले- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो।सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा दो महीने दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से सावधान रहना।
इस पर राजा विक्रमादित्य बोले- जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा।
इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए। कुछ समय बाद जब राजा विक्रमादित्य पर साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ विक्रमादित्य की नगर पहुंचे। राजा विक्रमादित्य उन घोड़ों को देखकर एक अच्छे-से घोड़े को अपनी सवारी के लिए चुनकर उस पर चढ़े। राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया। राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उन्हें एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चल दिए।
नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठ गए। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते खूंटी सोने के उस हार को निगल गई। सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि खूंटी ने हार को निगल लिया। इस पर राजा क्रोधित हुए और उन्होंने चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उन्हें सड़क पर छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद एक तेली उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई। एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहा था, तभी नगर की राजकुमारी मनभावनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी। उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया।
राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए। उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- हे शनिदेव, आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।
शनिदेव ने कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होता रहेगा तथा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उन्होंने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।
इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ आया और राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि वह जानते थे कि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा विक्रमादित्य को पुन: को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया। सेठ ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मनभावनी और सेठ की बेटी के साथ अपने नगर वापस पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की अनुकंपा बनी रहती है और जातक के सभी दुख दूर होते हैं।
1.9.15
आखिर कौन है भद्रा?
आखिर कौन है भद्रा?
शनि की सगी बहन है भद्रा
भद्रा भगवान सूर्य का कन्या है। सूर्य की पत्नी छाया से उत्पन्न है और शनि की सगी बहन है। यह काले वर्ण, लंबे केश, बड़े-बड़े दांत तथा भयंकर रूप वाली है। सूर्य भगवान से सोचा इसका विवाह किसके साथ किया जाए। प्रजा के दुख को देखकर ब्रह्माजी ने भी सूर्य के पास जाकर उनकी कन्या द्वारा किए गए दुष्कर्मो को बतलाया
यह सुनकर सूर्य ने कहा आप इस विश्व के कर्ता-
भर्ता हैं, फिर आप ही उपाय बताएं। ब्रह्माजी ने विष्टि को बुलाकर कहा- भद्रे! बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो और जो व्यक्ति यात्रा, प्रवेश, मांगल्य कृत्य, रेवती, व्यापार, उद्योग आदि कार्य तुम्हारे समय में करे, उन्हीं में तुम विघ्न करो।
तीन दिन तक किसी प्रकार की बाधा न डालो। चौथे दिन के आधे भाग में देवता और असुर तुम्हारी पूजा करेंगे। जो तुम्हारा आदर न करें, उनका कार्य तुम ध्वस्त कर देना। इस प्रकार से भद्रा की उत्पत्ति हुई। अत: मांगलिक कार्यो में अवश्य त्याग करना चाहिए।
भद्रा 5 घड़ी मुख में, 2 घड़ी कंड में, 11 घड़ी हृदय में, 5 घड़ी नाभि में, 5 घड़ी कटि में और 3 घड़ी पुच्छ में स्थिर रहती है। जब भद्रा मुख में रहती है तब कार्य का नाश होता है। कंड में धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश, नाभि में कहल, कटि में अर्थ-भंश होता है तथा पुच्छ में विजय तथा कार्य सिद्धि हो जाती है।
भद्रा के 12 नामों का (धन्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली तथा असुरक्षयकरी)
प्रात:काल उठकर जो स्मरण करता है उसे किसी भी व्याधि का भय नहीं होता।
रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं। उसके कार्यो में कोई विघ्न नहीं होता। युद्ध में तथा राजकुल में वह विजय प्राप्त करता है जो विधि पूर्वक नित्य विष्टि का पूजन करता है, नि:संदेह उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।