3.5.15

शनि ग्रह

शनि ग्रह
आवास-शनि मण्डल
मंत्र -ॐ शं शनैश्चराय नमः॥
ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:॥ [1]
पत्नी - नीलादेवी
वाहन - सात सवारियां: हाथी, घोड़ा , हिरण, गधा ,
कुत्ता , भैंसा और गृद्ध [2]
द वा ब
बण्णंजी, उडुपी में शनि महाराज की २३ फ़ीट ऊंची प्रतिमा
शनि ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं। शनि को सूर्य पुत्र माना जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे मारक , अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है। मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि
शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्ही को प्रताडित करता है।
“वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥”
भावार्थ:- शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं।
शनि देव् का जन्म
धर्मग्रंथो के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ, जब शनि देव छाया के गर्भ में थे तब छाया भगवन शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थी की उसने अपने खाने पिने तक शुध नहीं थी जिसका प्रभाव उसके पुत्र पर पड़ा और उसका वर्ण श्याम हो गया !शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं ! तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखता हैं ! शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित व् प्रताड़ित किया गया हैं ! अतः माता की इक्छा हैं कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने ! तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा ! मानव तो क्या देवता भी तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे ! अधिक जानकारी के लिए देखे लिंक शनि
पौराणिक संदर्भ
शनि के सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं। माता के छल के कारण पिता ने उसे शाप दिया.पिता अर्थात सूर्य ने कहा,"आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो जाये".यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा.राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उसे प्रसन्न किया। पद्म पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फ़ल भुगतान करता हूँ.एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूंछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं, तो शनि महाराज ने उत्तर दिया,"मातेश्वरी, उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का
न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है".एक आख्यान और मिलता है, कि किस प्रकार से ऋषि अगस्त ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी, तो उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे जल कर मरने के लिये
शनि देव ने विवश कर दिया, अथवा राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,शमशान की रखवाली तक करनी पडी, या
राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये, जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा, और भूनी हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं, फ़िर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा, कर्मणा, पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में, उसे भुगतना तो पडेगा ही.
मत्स्य पुराण में महात्मा शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है, वे गिद्ध पर सवार है, हाथ मे धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है, शनि
देव का विकराल रूप भयावना भी है। शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं। पश्चिम के साहित्य मे भी अनेक आख्यान मिलते हैं, शनि देव के अनेक मन्दिर हैं, भारत में भी शनि देव के अनेक मन्दिर हैं, जैसे शिंगणापुर , वृंदावन के कोकिला वन ,ग्वालियर के शनिश्चराजी , दिल्ली तथा अनेक शहरों मे महाराज शनि के मन्दिर हैं।
खगोलीय विवरण
नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड, इकसठ लाख मील दूर है। पृथ्वी से
शनि की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख, तियालीस हजार मील दूर है। शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है, यह छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी कक्षा मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। शनि धरातल का
तापमान २४० फ़ोरनहाइट है। शनि के चारो ओर सात वलय हैं, शनि के १५ चन्द्रमा है। जिनका प्रत्येक का व्यास पृथ्वी से काफ़ी अधिक है।
ज्योतिष में शनि
फ़लित ज्योतिष के शास्त्रो में शनि को अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है, जैसे मन्दगामी, सूर्य-पुत्र और शनिश्चर आदि.शनि के नक्षत्र हैं, पुष्य ,अनुराधा , और उत्तराभाद्रपद .यह दो राशियों मकर , और कुम्भ का स्वामी है। तुला राशि में २० अंश पर शनि परमोच्च है और मेष राशि के २० अंश प परमनीच है। नीलम शनि का रत्न है। शनि की तीसरी, सातवीं, और दसवीं द्रिष्टि मानी जाती है। शनि सूर्य, चन्द्र ,मंगल का शत्रु, बुध ,शुक्र को मित्र तथा गुरु को सम मानता है। शारीरिक रोगों में
शनि को वायु विकार , कंप , हड्डियों और दंत रोगों का कारक माना जाता है।
द्वादस भावों मे शनि
जन्म कुंडली के बारह भावों मे जन्म के समय शनि अपनी गति और जातक को दिये जाने वाले फ़लों के प्रति भावानुसार जातक के जीवन के अन्दर क्या उतार और चढाव मिलेंगे, सबका वृतांत कह देता है।
प्रथम भाव मे शनि
शनि मन्द है और शनि ही ठंडक देने वाला है, सूर्य नाम उजाला तो शनि नाम अन्धेरा, पहले भाव मे अपना स्थान बनाने का कारण है कि शनि अपने गोचर की गति और अपनी दशा मे शोक पैदा करेगा, जीव के अन्दर शोक का दुख मिलते ही वह आगे पीछे सब कुछ भूल कर केवल अन्धेरे मे ही खोया रहता है। शनि जादू टोने का कारक तब बन जाता है, जब शनि पहले भाव मे अपनी गति देता है, पहला भाव ही औकात होती है, अन्धेरे मे जब औकात छुपने लगे, रोशनी से ही पहिचान होती है और जब औकात छुपी हुई हो तो शनि का स्याह अन्धेरा ही माना जा सकता है। अन्धेरे के कई रूप होते हैं, एक अन्धेरा वह होता है जिसके कारण कुछ भी दिखाई नही देता है, यह आंखों का अन्धेरा माना जाता है, एक अन्धेरा समझने का भी होता है, सामने कुछ होता है, और समझा कुछ जाता है, एक अन्धेरा बुराइयों का होता है, व्यक्ति या जीव की सभी अच्छाइयां बुराइयों के अन्दर छुपने का कारण भी शनि का दिया गया अन्धेरा ही माना जाता है, नाम का अन्धेरा भे होता है, किसी को पता ही नही होता है, कि कौन है और कहां से आया है, कौन माँ है और कौन बाप है, आदि के द्वारा किसी भी रूप मे छुपाव भी शनि के कारण ही माना जाता है, व्यक्ति चालाकी का पुतला बन जाता है प्रथम भाव के शनि के द्वारा.शनि अपने स्थान से प्रथम भाव के अन्दर स्थिति रख कर तीसरे भाव को देखता है, तीसरा भाव अपने से छोटे भाई बहिनो का भी होता है, अपनी अन्दरूनी ताकत का भी होता है, पराक्रम का भी होता है, जो कुछ भी हम दूसरों से कहते है, किसी भी साधन से, किसी भी तरह से शनि के कारण अपनी बात को संप्रेषित करने मे कठिनाई आती है, जो कहा जाता है वह सामने वाले को या तो समझ मे नही आता है, और आता भी है तो एक भयानक अन्धेरा होने के कारण वह कही गयी बात को न समझने के कारण कुछ का कुछ समझ लेता है, परिणाम के अन्दर फ़ल भी जो चाहिये वह नही मिलता है, अक्सर देखा जाता है कि जिसके प्रथम भाव मे शनि होता है, उसका जीवन साथी जोर जोर से बोलना चालू कर देता है, उसका कारण उसके द्वारा जोर जोर से बोलने की आदत नही, प्रथम भाव का शनि सुनने के अन्दर कमी कर देता है, और सामने वाले को जोर से बोलने पर ही या तो सुनायी देता है, या वह कुछ का कुछ समझ लेता है, इसी लिये जीवन साथी के साथ कुछ सुनने और कुछ समझने के कारण मानसिक ना समझी का परिणाम सम्बन्धों मे कडुवाहट घुल जाती है, और सम्बन्ध टूट जाते हैं। इसकी प्रथम भाव से दसवी नजर सीधी कर्म भाव पर पडती है, यही कर्म भाव ही पिता का भाव भी होता है। जातक को कर्म करने और कर्म को समझने मे काफ़ी कठिनाई का सामना करना पडता है, जब किसी प्रकार से कर्म को नही समझा जाता है तो जो भी किया जाता है वह कर्म न होकर एक भार स्वरूप ही समझा जाता है, यही बात पिता के प्रति मान ली जाती है, पिता के प्रति शनि अपनी सिफ़्त के अनुसार अंधेरा देता है, और उस अन्धेरे के कारण
पिता ने पुत्र के प्रति क्या किया है, समझ नही होने के कारण पिता पुत्र में अनबन भी बनी रहती है, पुत्र का लगन या प्रथम भाव का शनि माता के चौथे भाव मे चला जाता है, और माता को जो काम नही करने चाहिये वे उसको करने पडते हैं, कठिन और एक सीमा मे रहकर माता के द्वारा काम करने के कारण उसका जीवन एक घेरे में बंधा सा रह जाता है, और वह अपनी शरीरी सिफ़्त को उस प्रकार से प्रयोग नही कर पाती है जिस प्रकार से एक साधारण आदमी अपनी जिन्दगी को जीना चाहता है।
दूसरे भाव में शनि
दूसरा भाव भौतिक धन का भाव है, भौतिक धन से मतलब है, रुपया ,पैसा,सोना, चान्दी ,हीरा ,मोती,जेवरात आदि, जब शनि देव दूसरे भाव मे होते है तो अपने ही परिवार वालो के प्रति अन्धेरा भी रखते है, अपने ही परिवार वालों से लडाई झगडा आदि करवा कर अपने को अपने ही परिवार से दूर कर देते हैं, धन के मामले मै पता नही चलता है कितना आया और कितना खर्च किया, कितना कहां से आया, दूसरा भाव ही बोलने का भाव है, जो भी बात की जाती है, उसका अन्दाज नही होता है कि क्या कहा गया है, गाली भी हो सकती है और ठंडी बात भी, ठंडी बात से मतलब है नकारात्मक बात, किसी भी बात को करने के लिये कहा जाय, उत्तर में न ही निकले.दूसरा शनि चौथे भाव को भी देखता है, चौथा भाव माता, मकान, और वाहन का भी होता है, अपने सुखों के प्रति भी चौथे भाव से पता किया जाता है, दूसरा शनि होने पर यात्रा वाले कार्य और घर मे सोने के अलावा और कुछ नही दिखाई देता है। दूसरा शनि सीधे रूप मे आठवें भाव को देखता है, आठवा भाव शमशानी ताकतों की तरफ़ रुझान बढा देता है, व्यक्ति भूत , प्रेत ,जिन्न और पिशाची शक्तियों को अपनाने में अपना मन लगा देता है, शमशानी साधना के कारण उसका खान पान भी शमशानी हो जाता है, शराब , कबाब और
भूत के भोजन में उसकी रुचि बढ जाती है। दूसरा शनि ग्यारहवें भाव को भी देखता है, ग्यारहवां भाव अचल सम्पत्ति के प्रति अपनी आस्था को अन्धेरे मे रखता है, मित्रों और बडे भाई बहिनो के प्रति दिमाग में अन्धेरा रखता है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन व्यक्ति के दिमाग में कुछ और ही समझ मे आता है।
तीसरे भाव में शनि
तीसरा भाव पराक्रम का है, व्यक्ति के साहस और हिम्मत का है, जहां भी व्यक्ति रहता है, उसके पडौसियों का है। इन सबके कारणों के अन्दर तीसरे भाव से शनि पंचम भाव को भी देखता है, जिनमे
शिक्षा , संतान और तुरत आने वाले धनो क


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