29.4.15

भाव के कारकत्व इस प्रकार हैं

सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्व इस प्रकार हैं -

प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।

द्वितीय भाव: दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।

तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।

चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।

पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।

षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।

सप्तम भाव : विवाह, पत्नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।

अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।

नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।

दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।

एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।

द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।

23.4.15

कुंडली के 12 भावों में गुरु का फल जानिए

कुंडली के 12 भावों में गुरु का फल जानिए

1.जिस जातक के लग्न में गुरु (बृहस्पति) होता है। ऐसा जातकअपने गुणों से चारों ओर आदर की दृष्टि से देखा जाता है।
2. दूसरे भाव में हो तो जातक कवि होता है। उसमें राज्य संचालन करने की शक्ति होती है।
3.तीसरे भाव में हो तो वह जातक नीच स्वभाव का बना
देता है। साथ ही उसे सहोदर भ्राताओं का सुख भी प्राप्त
होता है।
4.चौथे भाव में हो तो व्यक्ति लेखक, प्रवासी, योगी,
आस्तिक, कामी, पर्यटनशील तथा विदेश प्रिय तथा
महिलाओं के पीछे-पीछे घूमने वाला होता है।
5.पांचवे भाव में हो तो ऐसा जातक विलासी तथा आराम प्रिय होता है।
6.छठे भाव में हो तो ऐसा जातक सदा रोगी रहता है। मुकदमे आदि में जीत हासिल करता है। शत्रुओं को मुंह के बल गिराने की क्षमता रखता है।
7.सातवें भाव में हो तो बुद्धि श्रेष्ठ होती है। ऐसा व्यक्ति
भाग्यवान, नम्र, धैर्यवान होता है।
8.आठवें भाव में हो तो दीर्घायु होता है तथा ऐसा जातक अधिक समय तक पिता के घर में नहीं रहता है।
9.नौवें भाव में हो तो सुंदर मकान का निर्माण करवाता है।
ऐसा जातक भाई-बंधुओं से स्नेह रखने वाला होता है तथा राज्य का प्रिय होता है।
10.दसवें भाव में हो तो जातक को भूमिपति एवं भवन प्रेमी बना देता है। ऐसे व्यक्ति चित्रकला में निपुण होते है।
11.ग्यारहवें भाव में हो तो जातक ऐश्वर्यवान, पिता के धन को बढ़ाने वाला, व्यापार में दक्षता लिए होता है।
12.बारहवें भाव में हो तो ऐसा जातक आलसी, कम खर्च करने वाला, दुष्ट स्वभाव वाला होता है। लोभी-लालची होता है।

21.4.15

शास्त्रों की ये बातें ध्यान रखने पर मिलती है हर काम में कामयाबी


कार्यों में कामयाबी पाना चाहते हैं और नुकसान से बचना चाहते हैं तो यहां जानिए 5 ऐसी बातें, जिनसे बचना चाहिए...
1. अज्ञान या अधूरा ज्ञान किसी भी काम में सफलता पाने के लिए सही ज्ञान होनाआवश्यक है। अज्ञान या अधूरा ज्ञान हमेशा परेशानियों का कारण बनता है। अत: व्यक्ति को सदैव ज्ञान अर्जित करने के
प्रयास करते रहना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा जानकारी होगी तो हमारा दिमाग अच्छे-बुरे समय में सही निर्णय ले सकेगा। सही और गलत में से सही को चुनना तो सरल है, लेकिन दो सही बातों में से ज्यादा सही कौन सी बात है, ये जानने के
लिए ज्ञान होना बहुत जरूरी है। पर्याप्त ज्ञान रहेगा तो हम अवसरों को समय पर पहचान सकेंगे और उनसे लाभ प्राप्त कर पाएंगे।
प्रसंग- अज्ञान या अधूरा ज्ञान किस प्रकार हानि पहुंचाता है, इसका श्रेष्ठ उदाहरण महाभारत में देख सकते हैं। जब कौरवों की ओर से चक्रव्यूह रचना की गई थी, तब अभिमन्यु ने इसे भेदा था। अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो जानता था, लेकिन
चक्रव्यूह से पुन: लौटना नहीं जानता था। इस कारण वे चक्रव्यूह में फंस गए और मृत्यु को प्राप्त हुआ। ठीक इसी प्रकार आज भीअधूरा ज्ञान हमें भी परेशानियों में फंसा सकता है। अत: ज्ञान
बढ़ाते रहना चाहिए।

अहंकार
अहंकार यानी स्वयं को श्रेष्ठ समझना और दूसरों को तुच्छ। जो लोग सिर्फ मैं या अहं के भाव के साथ जीते हैं, वे जीवन में कभी भी सफलता हासिल नहीं कर पाते हैं। यदि किसी काम में सफलता मिल भी जाती है तो वह स्थाई नहीं होती है। अहं की
भावना व्यक्ति के पतन का कारण बनती है।
अहंकार के कई उदाहरण शास्त्रों में दिए गए हैं। रावण ने श्रीराम को तुच्छ समझा था। दुर्योधन ने सभी पांडवों को तुच्छ समझा था। परिणाम सामने है। रावण और दुर्योधन का अंत हुआ।
अत्यधिक मोह
किसी भी शास्त्रों की ये बातें ध्यान रखने पर मिलती है हर काम में कामयाबी में बहुत अधिक मोह होना भी परेशानियों का कारण बन जाता है। कई लोग मोह के कारण सही और गलत का भेद भूल जाते हैं। मोह को जड़ता का प्रतीक माना गया है।
जड़ता यानी यह व्यक्ति को आगे बढ़ने नहीं देता है, बांधकर रखता है। मोह में बंधा हुआ व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग भी ठीक से नहीं कर पाता है। यदि व्यक्ति आगे नहीं बढ़ेगा तो कार्यों में सफलता नहीं मिल पाएगी।धृतराष्ट्र को दुर्योधन से और हस्तिनापुर के राज-पाठ से अत्यधिक मोह था। इसी कारण धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन द्वारा किए जा रहे अधार्मिक कर्मों के लिए भी मौन रहे। इस
मोह के कारण कौरव वंश का सर्वनाश हो गया।
क्रोध
जब किसी व्यक्ति के मन की बात पूरी नहीं हो पाती है तो उसे क्रोध आना स्वभाविक है। जो लोग इस क्रोध को संभाल लेते हैं, वे निकट भविष्य में कार्यों में सफलता भी प्राप्त कर लेते हैं।जबकि, जो लोग क्रोध को संभाल नहीं पाते हैं और इसके आवेश में
गलत काम कर देते हैं, वे परेशानियों का सामना करते हैं।
रामायण में रावण ने क्रोधित होकर विभीषण को लंका से निकाल दिया था। इसके बाद विभीषण श्रीराम की शरण में चले गए। युद्ध में विभीषण ने ही श्रीराम को रावण की मृत्यु का रहस्य बताया था। क्रोध के आवेश में व्यक्ति ठीक से निर्णय
नहीं ले पाता है, अत: क्रोध को काबू करना चाहिए। इसके लिए रोज मेडिटेशन करें। ध्यान से क्रोध नियंत्रित हो सकता है।
असुरक्षा की भावना या मौत का डर
जिन लोगों में असुरक्षा की भावना होती है, वे किसी भी काम को पूरी एकाग्रता से नहीं कर पाते हैं। हर पल स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं और खुद को सुरक्षित करने के लिए सोचते रहते हैं।
राजा कंस को जब आकाशवाणी से यह मालूम हुआ कि देवकी की आठवीं संतान उसका काल बनेगी तो वह डर गया। कंस मृत्यु के भय से असुरक्षित महसूस करने लगा। इस भय में उसे देवकी की
संतानों को जन्म होते मार दिया। कई ऐसे काम किए, जिससे उसके पापों घड़ा भरा गया। लाख प्रयासों के बाद भी वह श्रीकृष्ण को नहीं मार पाया और उसी का अंत हुआ।

कर्ण के दिव्यास्त्र इस कारण जरुरत के समय नहीं आए काम

झूठ बोलकर पाई गई, सफलता या शक्ति आपको कुछ समय तक तो
लाभ दे सकती है, लेकिन इससे स्थाई लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता है। झूठ बोल कर यदि कुछ हासिल कर भी लिया जाए
तो वो चीज ज्यादा समय तक आपके पास टिक ही नहीं सकती।बल्कि झूठ के सहारे प्राप्त की गई चीजें हमारे लिए ही मुसीबत बन सकती हैं।
कर्ण ने झूठ के सहारे पाई शिक्षा और जरुरत के समय काम नहीं आई
महाभारत के अनुसार परशुराम ने सारी पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान कर दी। वे अपने सारे अस्त्र-शस्त्र भी ब्राह्मणों को ही दान कर रहे थे। कई ब्राह्मण उनसे शक्तियां मांगने पहुंच रहे थे।
द्रौणाचार्य ने भी उनसे कुछ शस्त्र लिए। तभी कर्ण को भी ये बात पता चली। कर्ण ब्राह्मण नहीं था, लेकिन परशुराम जैसे योद्धा से शस्त्र लेने का अवसर वो गंवाना नहीं चाहता था।
कर्ण को एक युक्ति सूझी, उसने ब्राह्मण का वेश बनाकर
परशुराम से भेंट की। उस समय तक परशुराम अपने सारे शस्त्र दान कर चुके थे। फिर भी कर्ण की सीखने की इच्छा को देखते हुए, उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया। कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी दिया।
एक दिन दोनों गुरु-शिष्य जंगल से गुजर रहे थे। परशुराम को थकान महसूस हुई। उन्होंने कर्ण से कहा कि वे आराम करना चाहते हैं।
कर्ण एक घने पेड़ के नीचे बैठ गया और परशुराम उसकी गोद में सिर रखकर सो गए। कर्ण उन्हें हवा करने लगा। तभी कहीं से एक बड़ा
कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर डंक मारना शुरू कर दिया।
कर्ण को दर्द हुआ, लेकिन गुरु की नींद खुल गई तो उसके सेवा कर्म में बाधा होगी, यह सोच कर वह चुपचाप डंक की मार सहता रहा।
कीड़े ने बार-बार डंक मारकर कर्ण की जांघ को बुरी तरह घायल कर दिया। उसकी जांघ से खून बहने लगा, खून की छोटी सी धारा परशुराम को लगी तो वे जाग गए। उन्होंने कीड़े को हटाया, फिर कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं।
उसने कहा मैं थोड़ा भी हिलता तो आपकी नींद खुल जाती, मेरा सेवा धर्म टूट जाता। ये अपराध होता। परशुराम ने तत्काल समझ लिया। उन्होंने कहा इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकती। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। कर्ण ने अपनी गलती
मान ली। परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब उसे इन
दिव्यास्त्रों की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, वो इसके प्रयोग की विधि भूल जाएगा। ऐसा हुआ भी, जब महाभारत युद्ध में कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध चल रहा था, तब कर्ण कोई दिव्यास्त्र नहीं चला सका, सभी के संधान की विधि वो भूल गया।
इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि कभी झूठ का सहारा लेकर कोई काम नहीं करना चाहिए। अन्यथा परिणाम विपरीत ही आएंगे।
झूठ कुछ समय का सुख दे सकता है, लेकिन ये भविष्य में मुसीबत अवश्य बनता है।
कर्ण ने दिखाया कृतज्ञता का गुण
महाभारत का एक प्रसंग है। पांडव बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण कर चुके थे। वे अब अपने पक्ष के वीरों को कौरवों के खिलाफ युद्ध करने के लिए इकट्ठा कर रहे थे। चचेरे भाइयों के बीच होने वाले युद्ध को रोकने के लिए भगवान
श्रीकृष्ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन को समझाने कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर गए, किंतु वह नहीं माना। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटने लगे तो हस्तिनापुर की सीमा तक छोड़ने आए लोगों में भीष्म पितामह, धर्मराज विदुर, दानवीर कर्ण आदि थे। नगर की सीमा आने पर सभी लौट गए, किंतु भगवान कृष्ण ने
कर्ण को रोक लिया और उन्हें बड़े स्नेह से कुंती पुत्र होने के नाते पांडवों का बड़ा भाई होने का हवाला देते हुए दुर्योधन का साथ छोड़ने का आग्रह किया।
तब कर्ण बोले, ‘वासुदेव! मैं यह सब जानता हूं, किंतु जब सब मुझे अपमानित कर रहे थे, तब दुर्योधन ने मुझे अपनाकर सम्मानित किया। मुझ पर उसके बहुत अधिक उपकार हैं। मेरे ही भरोसे पर दुर्योधन ने पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ने का फैसला किया है।
ऐसे समय मैं उसके साथ किसी प्रकार का विश्वासघात नहीं करूंगा।’ कृष्ण, कर्ण का यह आभार भाव देखकर फिर कुछ न बोल चले गए। कर्ण ने गलत व्यक्ति का साथ दिया, यह कतई उचित
नहीं था, किंतु इस प्रसंग में अनुकरणीय बात कर्ण में मौजूद कृतज्ञता का भाव है, जो आज के स्वार्थी युग में न के बराबर दिखाई देता है। यदि कोई संकट के समय हमारी सहायता करे तो वह लाख गुना महत्व रखती है। संकट का समय बीतकर अच्छा समय
आने पर भी उसे याद रख बदले में मददगार करना मानवीय धर्म है।
वैसे भी किसी के अहसान को याद रखना और कृतज्ञता व्यक्त करना सर्वोच्च मानवीय गुण है।

18.4.15

जन्म पत्रिका से भी जाना जा सकता है दुर्घटनाओं के बारे में।


जन्म पत्रिका से भी जाना जा सकता है दुर्घटनाओं के बारे में।
यदि हमें पूर्व से जानकारी हो जाए तो हम संभलकर उससे बच सकते हैं। दुर्घटना तो होना है लेकिन क्षति न पहुँच कर चोट लग सकती है

जिस प्रकार हम चिलचिलाती धूप में निकलें और हमने छाता लगा रखा हो तो धूप से राहत मिलेगी, उसी प्रकार दुर्घटना के कारणों को जानकर उपाय कर लिए जाएँ तो उससे कम क्षति होगी

इसके लिए 6ठा और 8वाँ भाव महत्वपूर्ण माना गया है। इनमें बनने वाले अशुभ योग को ही महत्वपूर्ण माना जाएगा। किसी किसी की पत्रिका में षष्ठ भाव व अष्टमेश का स्वामी भी अशुभ ग्रहों के साथ हो तो ऐसे योग बनते हैं।
वाहन से दुर्घटना के योग के लिए शुक्र जिम्मेदार होगा। लोहा या मशीनरी से दुर्घटना के योग का जिम्मेदार शनि होगा। आग या विस्फोटक सामग्री से दुर्घटना के योग के लिए मंगल जिम्मेदार होगा। चौपायों से दुर्घटनाग्रस्त होने पर शनि प्रभावी होगा। वहीं अकस्मात दुर्घटना के लिए राहु जिम्मेदार होगा। अब दुर्घटना कहाँ होगी? इसके लिए ग्रहों के तत्व व उनका संबंध देखना होगा

षष्ठ भाव में शनि शत्रु राशि या नीच का होकर केतु के साथ हो तो पशु द्वारा चोट लगती है

षष्ठ भाव में मंगल हो व शनि की दृष्टि पड़े तो मशीनरी से चोट लग सकती है

अष्टम भाव में मंगल शनि के साथ हो या शत्रु राशि का होकर सूर्य के साथ हो तो आग से खतरा हो सकता है

चंद्रमा नीच का हो व मंगल भी साथ हो तो जल से सावधानी बरतना चाहिए

केतु नीच का हो या शत्रु राशि का होकर गुरु मंगल के साथ हो तो हार्ट से संबंधित ऑपरेशन हो सकता है

शनि-मंगल-केतु अष्टम भाव में हों तो वाहनादि से दुर्घटना के कारण चोट लगती है

वायु तत्व की राशि में चंद्र राहु हो व मंगल देखता हो तो हवा में जलने से मृत्यु भय रहता है

अष्टमेश के साथ द्वादश भाव में राहु होकर लग्नेश के साथ हो तो हवाई दुर्घटना की आशंका रहती है

द्वादशेश चंद्र लग्न के साथ हो व द्वादश में कर्क का राहु हो तो अकस्मात मृत्यु योग देता है

मंगल-शनि-केतु सप्तम भाव में हों तो उस जातक की जीवनसाथी ऑपरेशन के कारण या आत्महत्या के कारण या किसी घातक हथियार से मृत्यु हो सकती है

अष्टम में मंगल-शनि वायु तत्व में हों तो जलने से मृत्यु संभव है

सप्तमेश के साथ मंगल-शनि हों तो दुर्घटना के योग बनते हैं

इस प्रकार हम अपनी पत्रिका देखकर दुर्घटना के योग को जान सकते हैं। यह घटना द्वितीयेश मारकेश की महादशा में सप्तमेश की अंतरदशा में अष्टमेश या षष्ठेश के प्रत्यंतर में घट सकती है।
उसी प्रकार सप्तमेश की दशा में द्वितीयेश के अंतर में अष्टमेश या षष्ठेश के प्रत्यंतर में हो सकती है। जिस ग्रह की मारक दशा में प्रत्यंतर हो उससे संबंधित वस्तुओं को अपने ऊपर से नौ बार विधिपूर्वक उतारकर जमीन में गाड़ दें यानी पानी में बहा दें तो दुर्घटना योग टल सकता है।

शुभ मुहूर्त

सर्वार्थसिद्धि, अमृतसिद्धि, गुरुपुष्यामृत और
रविपुष्यामृत योग
शुभ मुहूर्तों में स्वर्ण आभूषण, कीमती वस्त्र आदि खरीदना,पहनना, वाहन खरीदना, यात्रा आरम्भ करना, मुकद्दमा दायर करना, ग्रह शान्त्यर्थ रत्न धारण करना, किसी परीक्षा प्रतियोगिता या नौकरी के लिए आवेदन-पत्र भरना आदि शुभ मुहूर्त जानने के किए अब आपको पूछने के लिए किसी ज्योतिषी के पास बार-बार जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । सर्वार्थसिद्धि, अमृतसिद्धि, गुरुपुष्यामृत और रविपुष्यामृत योग वारों का विषेश
नक्षत्रों से सम्पर्क होने से ये योग बनते हैं । जैसे कि इन योगों के नामों से स्पष्ट है, इन योगों के समय में कोई भी शु्भ कार्य आरम्भ किया जाय तो वह निर्विघ्न रूप से पूर्ण होगा ऐसा हमारे पूर्वाचार्यों ने कहा है ।
यात्रा, गृह प्रवेश, नूतन कार्यारम्भ आदि सभी कार्यों के
लिए या अन्य किसी अपरिहार्य कारणवश यदि व्यतिपात, वैधृति, गुरु-शुक्रास्त, अधिक मास एवं वेध आदि का विचार सम्भव न हो तो सर्वार्थसिद्धि आदि योगों का आश्रय लेना चाहिये ।
अमृतसिद्धि योग
अमृतसिद्धि योग रवि को हस्त, सोम को मृगशिर, मंगल को अश्विनी, बुध को अनुराधा, गुरु को पुष्य नक्षत्र का सम्बन्ध होने पर रविपुष्यामृत गुरुपुष्यामृत नामक योग बन जाता है
जो कि अत्यन्त शुभ माना गया है ।
रवियोग योग
रवियोग भी इन्हीं योगों की भाँति सभी कार्यों के लिए
हैं . शास्त्रों में कथन है कि जिस तरह हिमालय का हिम
सूर्य के उगले पर गल जाता है और सैकड़ों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है उसी तरह से रवियोग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात् इस योग में सभी कार्य निर्विघन रूप से पूर्ण होंगे ।
त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग
त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग विषेश बहुमूल्य वस्तुओं की खरीददारी करने के लिए हैं . इन योगों में खरीदी गई वस्तु नाम अनुसार भविष्य में दिगुनी व तिगुनी हो जाती है ।
अतः इन योगों में बहुमूल्य वस्तु खरीदनी चाहिये । इन योगों के रहते कोई वस्तु बेचनी नहीं चाहिये क्योंकि भविष्य में वस्तु दुगुनी या तिगुनी बेचनी पड़ सकती है । धन या अन्य सम्पत्ति के संचय के लिए ये योग अद्वितीय माने गए हैं । इन योगों के रहते कोई वस्तु गुम हो जाये तो भविष्य में दुगुना या तिगुना नुकसान हो सकता है, अतः इस दिन सावधान रहना चाहिए । इस दिन मुकद्दमा दायर नहीं करना चाहिए
और दवा भी नहीं खरीदनी चाहिए ।

14.4.15

गृहकलह से बचने के 4 उपाय

गृहकलह से बचने के 4 उपाय
घर के पूजा स्थान पर घी का दीपक जलाएं। कपूर और अष्टगंध की सुगंध प्रतिदिन घर में फैलाएं।
गुरुवार और रविवार को गुड़ और घी मिलाकर उसे कंडे पर जलाएं,इससे वातावरण सुगंधित होगा।
रात्रि में सोने से पहले घी में भीगा हुआ कपूर जला दें। इसे
तनावमुक्ति होगी और गहरी नींद आएगी। शरीर को हमेशा
साफ-सुथरा बनाए रखें।
हफ्ते में 1 बार किसी भी दिन घर में कंडे जलाकर गूगल की
धूनी देने से गृहकलह शांत होता है।

10.4.15

ना पहनें दो से ज्यादा रत्न

ना पहनें दो से ज्यादा रत्न

रत्नों का ग्रहों की राशियों से केवल गहरा संबंध ही नहीं है,अपितु यदि उनका सही ढंग से चुनाव किया जा सके तो वे धारण करने वाले व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं और विरोधी शक्तियों का डटकर सामना करने की शक्ति और जीवन ऊर्जा से भरपूर बनाने में सामर्थ्य देते हैं।
रत्न धारण से जो ग्रह शुभ स्थानों के स्वामी होकर अशुभ स्थानों में स्थित हो जाता है तो वह निर्बल हो जाता है तो इससे संबंधित रत्न धारण से ग्रह को शक्ति मिलती है और जो अशुभ स्थान का स्वामी हो, पाप ग्रहों की संगत में बैठा हो, उनसे देखा जाता हो या अन्य कारण से दूषित हो तो उससे संबंधित रत्न पहने का अर्थ होगा कि उसकी विघटनकारी,अमंगलकारी शक्ति को उत्प्रेरित करना है।
इसके साथ जो शुभ ग्रह है और अन्य कारणों से भी शुभ है तो उसका रत्न पहनना निःसंदेह उपयोगी होगा, क्योंकि उसकी प्रखरता में वृद्धि होने से संभावित अवरोध भी दूर होंगे। सही रत्न का चुनाव कर शुभ मुहूर्त में अँगूठी बनवाकर व शुभ मुहूर्त में सही उँगली में अँगूठी धारण करने पर ही रत्न लाभकारी होता है।

रत्नों का ग्रहों की राशियों से केवल
गहरा संबंध ही नहीं है, अपितु यदि
उनका सही ढंग से चुनाव किया जा सके
तो वे धारण करने वाले व्यक्ति के जीवन
में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं।

कई बार एक व्यक्ति दो या दो से अधिक रत्न धारण कर लेते हैं।आजकल तो पाँचों उँगलियों में और एक से अधिक रत्न एक ही उँगली में धारण कर लेते हैं। इससे रत्नों का फल निष्फल या विपरीत भी हो जाता है।
ज्योतिष शास्त्रानुसार दो या दो रत्नों को धारण करते समय अति सावधानी रखना चाहिए। समान तत्व वाली राशियों के स्वामी के तथा मित्र ग्रहों के रत्नों को ही एकसाथ धारण करना चाहिए। शत्रु ग्रहों के रत्नों को धारण करना निषेध है।
निम्नांकित सारिणी से भली-भाँति जानकारी मिल सकती है कि कौन-से रत्न एकसाथ धारण करना चाहिए एवं कौन-से रत्न धारण नहीं करना चाहिए।
ग्रहों के लिए निर्धारित उँगलियों में ही रत्न धारण करना
चाहिए तभी प्रभावशाली होता है।

माणिक अनामिका में, मूँगा तर्जनी-अनामिका में, मोती
तर्जनी- अनामिका, पन्ना-कनिष्ठा में, पुखराज-तर्जनी में,
हीरा तर्जनी-अनामिका में, नीलम, गोमेद व लसुनिया मध्यमा में धारण करना चाहिए। तर्जनी गुरु की, मध्यमा शनि की,अनामिका सूर्य की तथा कनिष्ठा बुध की उँगलियाँ मानी गई हैं।

रत्न धारण का प्रभाव तभी होता है, जब 'कौन-सा रत्न धारण करना' का सही निर्णय आवश्यक है। रत्न निर्दोष होना चाहिए। सही वजन का होना चाहिए। सही धातु में अँगूठी बनवाकर शुभ मुहूर्त में सही उँगली में निषेध रत्नों के साथ न पहनने से ही लाभकारी होता है।
क्र. राशि राशि ग्रह ग्रह का रत्न इस रत्न को साथ न पहनें
1.मेष मंगल मूँगा पन्ना-हीरा

2.वृषभ शुक्र हीरा मूँगा

3.मिथुन बुध पन्ना मूँगा-नीलम

4.कर्क चन्द्र मोती मूँगा

5.सिंह सूर्य माणिक नीलम-हीरा

6.कन्या बुध पन्ना मूँगा-नीलम

7.तुला शुक्र हीरा मूँगा

8.वृश्चिक मंगल मूँगा पन्ना-हीरा

9.धनु गुरु पुखराज हीरा-पन्ना

10.मकर शनि नीलम माणिक-पुखराज

11.कुंभ शनि नीलम माणिक-पुखराज

12.मीन गुरु पुखराज हीरा-पन्ना