झूठ बोलकर पाई गई, सफलता या शक्ति आपको कुछ समय तक तो
लाभ दे सकती है, लेकिन इससे स्थाई लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता है। झूठ बोल कर यदि कुछ हासिल कर भी लिया जाए
तो वो चीज ज्यादा समय तक आपके पास टिक ही नहीं सकती।बल्कि झूठ के सहारे प्राप्त की गई चीजें हमारे लिए ही मुसीबत बन सकती हैं।
कर्ण ने झूठ के सहारे पाई शिक्षा और जरुरत के समय काम नहीं आई
महाभारत के अनुसार परशुराम ने सारी पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान कर दी। वे अपने सारे अस्त्र-शस्त्र भी ब्राह्मणों को ही दान कर रहे थे। कई ब्राह्मण उनसे शक्तियां मांगने पहुंच रहे थे।
द्रौणाचार्य ने भी उनसे कुछ शस्त्र लिए। तभी कर्ण को भी ये बात पता चली। कर्ण ब्राह्मण नहीं था, लेकिन परशुराम जैसे योद्धा से शस्त्र लेने का अवसर वो गंवाना नहीं चाहता था।
कर्ण को एक युक्ति सूझी, उसने ब्राह्मण का वेश बनाकर
परशुराम से भेंट की। उस समय तक परशुराम अपने सारे शस्त्र दान कर चुके थे। फिर भी कर्ण की सीखने की इच्छा को देखते हुए, उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया। कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी दिया।
एक दिन दोनों गुरु-शिष्य जंगल से गुजर रहे थे। परशुराम को थकान महसूस हुई। उन्होंने कर्ण से कहा कि वे आराम करना चाहते हैं।
कर्ण एक घने पेड़ के नीचे बैठ गया और परशुराम उसकी गोद में सिर रखकर सो गए। कर्ण उन्हें हवा करने लगा। तभी कहीं से एक बड़ा
कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर डंक मारना शुरू कर दिया।
कर्ण को दर्द हुआ, लेकिन गुरु की नींद खुल गई तो उसके सेवा कर्म में बाधा होगी, यह सोच कर वह चुपचाप डंक की मार सहता रहा।
कीड़े ने बार-बार डंक मारकर कर्ण की जांघ को बुरी तरह घायल कर दिया। उसकी जांघ से खून बहने लगा, खून की छोटी सी धारा परशुराम को लगी तो वे जाग गए। उन्होंने कीड़े को हटाया, फिर कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं।
उसने कहा मैं थोड़ा भी हिलता तो आपकी नींद खुल जाती, मेरा सेवा धर्म टूट जाता। ये अपराध होता। परशुराम ने तत्काल समझ लिया। उन्होंने कहा इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकती। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। कर्ण ने अपनी गलती
मान ली। परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब उसे इन
दिव्यास्त्रों की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, वो इसके प्रयोग की विधि भूल जाएगा। ऐसा हुआ भी, जब महाभारत युद्ध में कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध चल रहा था, तब कर्ण कोई दिव्यास्त्र नहीं चला सका, सभी के संधान की विधि वो भूल गया।
इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि कभी झूठ का सहारा लेकर कोई काम नहीं करना चाहिए। अन्यथा परिणाम विपरीत ही आएंगे।
झूठ कुछ समय का सुख दे सकता है, लेकिन ये भविष्य में मुसीबत अवश्य बनता है।
कर्ण ने दिखाया कृतज्ञता का गुण
महाभारत का एक प्रसंग है। पांडव बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण कर चुके थे। वे अब अपने पक्ष के वीरों को कौरवों के खिलाफ युद्ध करने के लिए इकट्ठा कर रहे थे। चचेरे भाइयों के बीच होने वाले युद्ध को रोकने के लिए भगवान
श्रीकृष्ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन को समझाने कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर गए, किंतु वह नहीं माना। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटने लगे तो हस्तिनापुर की सीमा तक छोड़ने आए लोगों में भीष्म पितामह, धर्मराज विदुर, दानवीर कर्ण आदि थे। नगर की सीमा आने पर सभी लौट गए, किंतु भगवान कृष्ण ने
कर्ण को रोक लिया और उन्हें बड़े स्नेह से कुंती पुत्र होने के नाते पांडवों का बड़ा भाई होने का हवाला देते हुए दुर्योधन का साथ छोड़ने का आग्रह किया।
तब कर्ण बोले, ‘वासुदेव! मैं यह सब जानता हूं, किंतु जब सब मुझे अपमानित कर रहे थे, तब दुर्योधन ने मुझे अपनाकर सम्मानित किया। मुझ पर उसके बहुत अधिक उपकार हैं। मेरे ही भरोसे पर दुर्योधन ने पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ने का फैसला किया है।
ऐसे समय मैं उसके साथ किसी प्रकार का विश्वासघात नहीं करूंगा।’ कृष्ण, कर्ण का यह आभार भाव देखकर फिर कुछ न बोल चले गए। कर्ण ने गलत व्यक्ति का साथ दिया, यह कतई उचित
नहीं था, किंतु इस प्रसंग में अनुकरणीय बात कर्ण में मौजूद कृतज्ञता का भाव है, जो आज के स्वार्थी युग में न के बराबर दिखाई देता है। यदि कोई संकट के समय हमारी सहायता करे तो वह लाख गुना महत्व रखती है। संकट का समय बीतकर अच्छा समय
आने पर भी उसे याद रख बदले में मददगार करना मानवीय धर्म है।
वैसे भी किसी के अहसान को याद रखना और कृतज्ञता व्यक्त करना सर्वोच्च मानवीय गुण है।
21.4.15
कर्ण के दिव्यास्त्र इस कारण जरुरत के समय नहीं आए काम
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